Speech is an art,भाषण देना या सार्वजनिक रूप से बोलना एक कला है|

भाषण देना या सार्वजनिक रूप से बोलना एक कला है|
डॉ मधुसूदन व्यास
   हम किसी को भाषण देते हुए या सार्वजनिक बोलते देखते हें, तब आप एक श्रोता, और समीक्षक होते हें, और वक्ता की कमियों अथवा उससे असहमत होने पर उसका मजाक बनाते हें, आपको लगता है की आप वक्ता से, अधिक और अच्छा जानते हें, तर्क-वितर्क और बहस के दोरान तो आप अपनी बात सिद्ध करने पर तुले रहते हें|  जब

आपको बोलने का अवसर मिलता है तो माइक के सामने जाते ही जैसे सब कुछ भूल जाते हें, पसीने छुटने लगते हें, और फिर निरर्थक बोलकर वापिस बेठ जाते हैं| वास्तव में आप कुछ अतिरिक्त जानने से उत्साहित होकर, ऐसा  व्यवहार करते हें, वास्तव में आप अपने विषय पर अधिक नहीं जानते, इस कारण आप अपनी बात को भाषण रूप में सार्वजनिक रूप से धाराप्रवाह व्यक्त करने में असमर्थ पाते हें|  
   इस कमी के कारण हम जीवन में बहुत कुछ पाने से वंचित रह जाते हें| यदि हम भाषण या बोलने की कला में पारंगत हों तो प्रत्येक क्षेत्र में सफलता प्राप्त करने और आत्मविश्वास पूर्वक जीवन जीने की अवसर मिल जाता है|
   इस कला को समझने से स्टेज, माइक व भीड़ का भय दूर हो जाता है| आपसी  बातचीत में लोकप्रियता मिलती है, श्रोताओं को जीतने,  एंकरिंग से समाज व संस्थान में प्रसिद्धि,  इंटरव्यू, ग्रुप डिस्कशन व मीटिंगों में आत्मविश्वास,  दूसरों को अपने विचारों से सहमत करने, सेमिनार व रिपोर्ट प्रस्तुति ज्ञान, तथा नेतृत्व (लीडर) के रूप में उभरने का अवसर मिल जाता है|
कोन नही चाहता की वे अथवा उनके बच्चे इस कार्य में महारथ हांसिल कर लें| यह सब जानने के लिए कुछ बाते समझना होंगी की कोई सार्वजनिक रूप से भाषण देने या बोलने में भयभीत क्यों हो जाते हें?
जब आप माइक के  सामने खड़े होते हें तो होता क्या है?
    सार्वजनिक बोलना अधिकतर लोगों के लिए भय या फोबिया है और सामान्यत: इसका उन्हें तब तक जब तक की अवसर न आये पता भी नही होता|
    इस फोबिया या भय के कारण अपने हाथों में पसीना आना, मुंह सूखना, घुटनों का कपना और वाणी में थरथराहट सी महसूस  होने लगती है, दिल की धडकन भी वड सकती है, और यही वह अवसर होता है जब हम आत्मविश्वास खो बैठते हें|
      लगभग सभी यह नहीं जानते की ऐसेअवसर के लिए ही प्रकृति ने हमें कुछ विशेषताएं प्रदान की हैं, जो हमारे किसी भी फोबिया या भय पर विजय पाने में सहायक सिद्ध होती है|
    इसके लिए थोडा सा धेर्य, इस फोबिया या भय को दूर करने में सहायक होता है| इस धेर्य काल में शरीर की ग्रंथियों से स्वत: ही इस भय को दूर करने वाला प्रभावी तत्व, जिसे एड्रेनलिन और नारेड्रेनलिन कहते हें के रक्त में बड जाने से होता है|
   केवल कुछ क्षण के इस समय के लिए यदि आप खुद को सम्भाल सकते हें, तो जल्दी ही आपका आत्म विश्वास लोटने लगता है, और वह सबकुछ जो आप बोलना चाहते हें, आसानी से बोल सकते हें| परन्तु यदि आप इस समय ऐसा  नहीं कर पाते, तब गलतियाँ करते हें, आपा खो कर किसी मुर्ख की तरह व्यव्हार करने लग सकते हें|
   सार्वजनिक रूप से बोलते समय डर को दूर करने के लिए आवश्यक हें, धीरज रखें शीघ्र ही एड्रेनलिन मिलते ही सहज होने का प्रयत्न भी करें तो थोड़ी देर में ही परिस्थितियों पर नियंत्रण होने लगता है, और भुला हुआ याद आने लगता है|
    यह तो बात हुई सामान्यत: प्रथम बार अथवा अनायास ही भाषण के लिए आमंत्रित किये जाने के अवसर पर परिस्थिति की, परन्तु अच्छा वक्ता बनाने के लिए लेखन की तरह ही भाषण में भी 'तर्क', तथ्य' 'प्रमाण', 'उदाहरण', अनुभव' 'इतिहास' 'परामर्श' 'मंथन'' अदि अनेक आधारों पर अवलंबन करने से ही, कुशल वक्ता बनाने या कहलाने का अवसर मिलता है|  
 कुशल वक्ता की योग्यता विकसित करने के लिए भी निम्न नियम अपनाने होंगे|
अपने वक्तव्य के लिए प्रदत्त या उपयुक्त विषय का चुनावऔर उसमें अपने चिंतन तथा प्रयास का केन्द्रीयकरण।
  •     निर्धारित विषयों के प्रमाणिक ग्रंथो का गंभीरता पूर्वक अधिकाधिक अध्ययन।
  •    जो पड़ा और ढूंढा है,  उसमें से जितना सारगर्भित हो उसका सुव्यवस्थित रूप में वर्गीकरण- संकलन।
  •     संकलन का सही शेली में क्षेत्रीय श्रोताओं के अनुसार भाषा, लिपि, भाव, व्याकरण, संतुलन, शब्दानुशासन, आदि के आधार पर  संचय कर वक्तव्य का सूत्र रूप में लिपिकरण |
  •   वक्तव्य का पूर्व ढांचा खड़ा करना, अर्थात प्रारम्भ से अंत तक उसके हर पक्ष के लिए आवश्यक शब्द सामग्री जुटाना। इसके लिए भी अध्ययन, परामर्श, मनन, एवं सूझ-बूझ के साथ उपयुक्त निर्धारण।
  •      अंत में इस एकत्र समग्र वक्तव्य को "हार" की तरह गूथना, गुलदस्ते की तरह क्रमबद्ध रूप में संजोना।

     इन सभी पक्षों पर समुचित ध्यान देने की आवश्यकता है, एक भी चूका या महत्वहीन समझा तो भाषण निरर्थक बन जायेगा| निरर्थक भाषण आपके उदेश्य को पूरा नहीं कर सकता| साथ ही बोलने में हुई शब्द चूक का परिणाम घातक भी हो सकता है| भूलना नहीं चाहिए की हमारे मुहं से पूर्व तैयारी के विना अनजाने में ऐसेशब्द निकल जाते हें जिन्हें वापस लेना सम्भव न होने से जीवन भर के लिए अप्रतिष्ठित हो जाने का भय हो सकता है|
  इसके लिए भी जरुरी है की हम निम्न आवश्यक बातों पर अच्छी तरह विचार कर लें|
  • महत्वपूर्ण शब्दों को ही चुने, महत्वहीन शब्दों को छोड़ देवें|
  • आपको अच्छी तरह से ज्ञात होना चाहिए की आप जब बोलेंगे तब उस समय आपकी शारीरिक और मानसिक स्थिति कैसी होगी|
  • याद रखें की संसार का हर व्यक्ति, उत्साह और उमंग, मेहनत और कर्म की भाषा और भाव को अच्छी तरह समझता है|
  •  बोलने की आदत बनाइये, बोलते रहने से ही आत्मविश्वास पैदा होता है, लेकिन बोलने से पहले अपने शब्दों को रचनात्मक विचारों की कसौटी पर परख जरुर लें|

बोलने की आदत को बचपन से शामिल करना अच्छा है, बच्चो को कविता, अभिभाषण, नाट्य, आदि बाल सभाओं में बोलने के प्रोत्साहन दीजिये, और उन्हें सराहें भी जरुर इससे बचपन से ही आत्मविश्वास पैदा होगा|
युवको और प्रोढौ के लिए भी इस कला के विकास के लिए किसी विषय पर अभिभाषण, वाद-विवाद आदि प्रतियोगिताएं आयोजित की जाये, इससे उनमें भविष्य नेतृत्व क्षमता का विकास होगा|
  • आपको यह ज्ञात होना चाहिए की आप जो बोल रहें हें, वह गलत या झूंठ या किसी की कल्पना पर आधारित तो नहीं है| याद रखें की जब भी आप ऐसा  कुछ बोलते हें तो आपको ज्ञात नहीं होता की आप किस मुसीबत में फसने वाले हें, क्योकि एक झूंठ को छुपाने दूसरा फिर तीसरा बोलते हुए बीसिओं झूठ के अपने ही जाल फंस जाते हें| और आपके नेतृत्व क्षमता कुंठित हो जाती है|

इसलिए एक शब्द बोलने से पहले दो बार सोच लें, तब आप हमेशा अच्छा बोलेंगे।
  • आपको यह भी जानना चाहिए की मनोवैज्ञानिक शोध के अनुसार, जिन्हें अच्छी तरह से बातचीत करना नहीं आता, वही लोग सबसे अधिक बोलते हैं, इसके विपरीत जिन्हें बातचीत करनी आती है, वे कम बोलते हैं। दुसरे शब्दों में कहें तो जो कम बोलते हें वे अन्य को अधिक सुनकर समझकर अपनी बात कहते हें, ऐसे व्यक्ति ही कुशल वक्ता होते हें|
  • महोदय, श्रीमान, कृपया और धन्यवाद, आदि कुछ ऐसे साधारण शिष्टाचार के शब्द हैं, जिनका प्रयोग आपको विनम्र और श्रोता को प्रसन्नता का अनुभव कराता है, और आपकी अच्छी छवि बनता है|

    अक्सर वक्ताओं के पास बोलने या बात करने की कला तो होती है, पर वे वक्तव्य को अच्छी तरह या प्रभावी अंत नहीं दे पाते| जैसे आप समाज की बात कर रहें हें तो वही सोंचे, की किस तरह आप समाज के लिए कुछ कर सकते हें, या और ऐसा  क्या है, जो नहीं होना चाहिए, अर्थात आपके वक्तव्य के अंत में विषय के अनुसार कुछ नई सोच होना चाहिये, यही आपकी नेतृत्व को शीर्ष पर पहुंचाएगा|
   जब आप श्रोताओं के सामने खड़े हों तो आपको यह ज्ञात होना ही चाहिए की श्रोता आपकी बात पर कितना ध्यान दे रहें हें, यदि वे उब रहें हैं तो सावधानी से विषय को बदलिए, उनके आत्मसम्मान पर ठेस पहुंचाए बिना, कुछ कहानी, चुटकी का प्रयोग कर आकर्षित कीजिये, फिर अपने मूल विषय पर लोट आइये|
अपने वक्तव्य को समय सीमा में जरुर बांधिए, आयोजको, के दिए समय का सदुपयोग कर बोलना, अधिक प्रभावित करता है| अधिकतम भाषण किसी भी परिस्थिति में 40 मिनिट से अधिक होना, श्रोताओं के अनुसार न होना, उबा देने वाला होता है|
    वक्ता वही सफल होता है जो श्रोता को सुनने के लिए मजबूर कर दे|
    इसके लिए श्रोता आपसे जुड़ा रहे, इसके लिए उनसे सवाल पूछें, शब्दों में उत्तेजना, और चुनौती हो, अपने शब्दों के उच्चारण की गति, और स्वर को बढ़ाते घटाते रहें|
भाषण कला को जानने के लिए जिन गुणों की अपेक्षा की जाती हे वे निम्न हो सकते हें। बच्चो में इन गुणों को विकसित किया जा सकता है|
1- उत्कट आकांक्षा -जो नाम और यश से प्रेरित नहीं हो।
2- अच्छा श्रोता और एकाग्रता का अभ्यासी,
3-अध्ययन शीलता - स्वाध्यायी होना चाहिए।
4-जागरूकता - विषय के प्रति सतर्कता रखने वाला, पुनुरावलोकन करते रहने वाला होना चाहिए ऐसा  व्यक्ति ही लेखन या भाषण के प्रति जागरूक होता है।
5- ज्ञान को पचाने में समर्थ होना, बुद्धि सामर्थ अनुसार नियत समय सीमा में करने की क्षमता से युक्त 'बड़ा  स्पष्ट' या 'टू दी पाइंट ' होना।
6- संवेदनशीलता -कल्पना की नीव पर महल बना पाने के लिए भाव संवेदनाओ से युक्त अभिव्यक्ति का सामर्थ होना, जितना आवश्यक है उतना ही आवश्यक यह भी है, की हम अति उत्साह, या उत्तेजना में किसी असंबंधित या तटस्थ के लिए कुछ अनावश्यक न कह देवे| जैसे बोलते समय माइक खराब हुआ तो बुराभला कहना आदि| 
अंत में एक बात ही और है जो किसी को किसी भी विधा में कुशल बनाती है, वह है- अभ्यास, निरंतर अभ्यास वही आत्मविश्वास बढाने में सहायक है|

हमेशा सकारात्मक विचार व्यक्त करें, जिन शब्दों में नकारात्मक या नहीं शब्द आता हो, कभी नहीं बोलें| याद रखें नकारात्मक बात हमेशा याद रखी जाती है, नकारात्मकता जिस तेजी से दूसरों को आपकी और आकर्षित करती है उतनी तेजी से ही वह उन्हें आपका विरुद्ध खड़ा भी करती है, नकारात्मकता पर आधारित व्यक्तित्व दीर्घजीवी  नहीं होता|  


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